[प्राचीन इतिहास - लेख]*अध्याय 17. शाही चोल राजवंश

 

[प्राचीन इतिहास - लेख]*अध्याय 17. शाही चोल राजवंश 


परिचय 

संगम काल के पतन के बाद, चोल दक्षिण भारत में एक प्रमुख राजवंश के रूप में उभरे। शुरुआत में उरईयूर में स्थित, वे 9वीं शताब्दी में सत्ता में आए और उन्होंने इस क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को शामिल करते हुए एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। तंजौर उनकी राजधानी थी, और उनका प्रभाव श्रीलंका और मलय प्रायद्वीप तक फैला हुआ था, जिससे उन्हें "शाही चोल" की उपाधि मिली।



स्थापना और प्रारंभिक विजय

विजयालय: शाही चोल वंश का संस्थापक विजयालय था, जिसने 815 ई. में मुत्तरैयारों से तंजौर पर कब्जा कर लिया और दुर्गा को समर्पित एक मंदिर का निर्माण कराया।


आदित्य: विजयालय के पुत्र आदित्य ने पल्लवों को हराकर तथा तोंडईमंडलम पर कब्जा करके चोल साम्राज्य का और विस्तार किया।



परान्तक I और प्रारंभिक चुनौतियाँ

विजय और पराजय: परंतक प्रथम, एक महत्वपूर्ण प्रारंभिक चोल शासक, ने पांड्यों और सीलोन के शासक पर विजय प्राप्त की। हालाँकि, उसे तक्कोलम की लड़ाई में राष्ट्रकूटों के हाथों एक महत्वपूर्ण हार का सामना करना पड़ा।


मंदिर निर्माण: असफलता के बावजूद, परंतक प्रथम मंदिरों के एक प्रसिद्ध निर्माता थे। उन्होंने चिदंबरम में नटराज मंदिर को सोने की छत से सजाया।


ग्राम प्रशासन: उनके शासनकाल में प्रसिद्ध उत्तरामेरुर शिलालेखों का निर्माण भी हुआ, जो चोल ग्राम प्रशासन के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं।



राजराजा प्रथम और चोल शक्ति का पुनरुत्थान

प्रभुत्व पुनः स्थापित करना: गिरावट की अवधि के बाद, चोलों ने राजराजा प्रथम के नेतृत्व में अपना प्रभुत्व पुनः प्राप्त कर लिया। उन्होंने विजय की एक श्रृंखला शुरू की, साम्राज्य का विस्तार किया और चोल शक्ति को मजबूत किया।


चोलों ने दक्षिण भारतीय इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है, जो अपनी सैन्य शक्ति, प्रशासनिक दक्षता और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए जाने जाते हैं। उनके युग के शिलालेख चोल समाज, अर्थव्यवस्था और प्रशासन के विभिन्न पहलुओं के बारे में अमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं।



[प्राचीन इतिहास - लेख]*अध्याय 17. शाही चोल राजवंश 





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निष्कर्ष

चोल दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे, उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और इस क्षेत्र में एक स्थायी विरासत छोड़ी। उनके शासनकाल की विशेषता सैन्य विजय, प्रशासनिक सुधार, सांस्कृतिक संरक्षण और स्थापत्य कला की उपलब्धियाँ थीं।



मुख्य सफलतायें

सैन्य प्रभुत्व: चोलों ने सैन्य विजय के माध्यम से अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा विशाल क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया।


प्रशासनिक दक्षता: चोलों ने एक सुव्यवस्थित और कुशल प्रशासनिक प्रणाली विकसित की, जिससे स्थिरता और समृद्धि सुनिश्चित हुई।


सांस्कृतिक संरक्षण: राजवंश ने साहित्य, कला और वास्तुकला सहित विभिन्न सांस्कृतिक प्रयासों को समर्थन दिया।


वास्तुकला विरासत: चोल वंश द्रविड़ वास्तुकला में अपने योगदान के लिए प्रसिद्ध है, तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है।



स्थायी प्रभाव

चोलों का प्रभाव उनके शासनकाल से आगे तक फैला हुआ था। उनकी प्रशासनिक प्रणालियों, सांस्कृतिक परंपराओं और स्थापत्य शैलियों का दक्षिण भारतीय इतिहास और संस्कृति पर स्थायी प्रभाव रहा है। चोल राजवंश की विरासत उनकी शक्ति, उपलब्धियों और क्षेत्र में उनके स्थायी योगदान का प्रमाण है।


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